By Ishank
वाराणसी, 12 मार्च 2025
दुनिया बरसाने की होली, लड्डू होली या फिर मिथिला की कीचड़ होली के बारे में तो जानते हैं. रंग-ओ-गुलाल की होली के बारे में भी सब जानते हैं. मतलब होली पर्व रंग-उल्लास और एकता का प्रतीक है. वाराणसी की ‘भस्म-होली’ (Bhasma Holi) का मगर जो महत्व-अहमियत है. वो अपने आप में अलग ही है. हर कोई इस होली में शामिल होना चाहता है. आखिरी दुनिया क्यों दीवानी रहती है वाराणसी की भस्म होली की? क्या खास है आखिर मसाने, महाश्मशान या भस्म-होली में? काशी की प्राचीन संस्कृति और शिव भक्ति से जुड़ी यह भस्म होली आखिर भीड़ से क्यों अलग मगर बेहद अहम है? क्या वाकई इस इस होली में काशी नगरी में खुद बाबा काशी विश्वनाथ यानी बाबा भोले शंकर दिगंबर रुप में डमरू, ढोल और झांझ की नाद सहित खुद आते हैं भक्तों के साथ ‘मसानी’ होली खेलने? मसान होली के भी नाम से मशहूर इस होली की एक खासियत यह भी है कि, इसमें रंग-ओ-गुलाल का दूर-दूर तक इस्तेमाल नहीं होता. इस भस्म या मसाने की होली में इस्तेमाल होता है रंग-गुलाल की जगह, श्मशान में मौजूद चिता की राख. इन्हीं तमाम सवालों के जवाब मौजूद हैं साल 2025 की हुड़दंगी होली के मौके पर विस्फोट मीडिया डॉट कॉम की यह खास ‘कवर-स्टोरी’

वाराणसी के महा-श्मशान, विशेष रूप से मणिकर्णिका घाट और काशी विश्वनाथ मंदिर के आसपास, यह उत्सव जीवन और मृत्यु के बीच की कड़ी को दर्शाता है. भस्म होली की उत्पत्ति भगवान शिव से जुड़ी एक पौराणिक कथा से मानी जाती है. जिसके मताबिक कामदेव ने अपनी माया से जब शिवजी को मोहित करने की कोशिश की, तो क्रोधित शिव ने उन्हें अपनी तीसरी आंख से भस्म कर दिया. बाद में, कामदेव की पत्नी रति की प्रार्थना पर शिवजी ने उन्हें पुनर्जन्म का वरदान दिया.
इस घटना की याद में वाराणसी में आज भी वाराणसी या कहिए कि भोले की नगरी काशी में भस्म-होली मनाई जा रही है.
भस्म होली मनाने का तरीका?
होली से एक दिन पहले और रंगभरी एकादशी के बाद, भोले के भक्त गंगा किनारे स्थित मणिकर्णिका घाट पर एकत्र होते हैं. यहां जलती चिताओं से ली गई राख (भस्म) को शरीर पर मला जाता है. इसके बाद, शिव भजन और लोक गीतों के साथ नृत्य, रंग-ओ-रास शुरू होता है. महा-श्मशान में होली का दृष्य देखने में भले ही, किसी अनजान को अटपटा लगे लेकिन, इसके पीछे आध्यात्मिक अर्थ छिपा है. भस्म को शिव का प्रतीक माना जाता है. जो जीवन के नश्वर स्वरूप और आत्मा की शाश्वतता की याद दिलाता है.
भस्म-होली (Bhasma Holi) उत्सव रंगों की होली से एकदम अलग है. यह मृत्यु को भी उत्सव का हिस्सा बनाती है. भस्म होली से ही सीखने को मिलता है कि जीवन और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. शिव, जो संहारक और पालनहार दोनों हैं. इस परंपरा के केंद्र में हैं. भस्म होली (Massan Holi) भक्तों को अहंकार त्यागने और जीवन के सत्य को स्वीकार करने की प्रेरणा देती है. यह काशी की उस पहचान को भी रेखांकित करती है, जहां मोक्ष की खोज कण-कण में मौजूद दिखती है.

भस्म होली वाराणसी (Kashi Bhasam Holi)कहिए या फिर काशी की, सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर का अनूठा रंग-संगम है. यह हमें याद दिलाती है कि हर उत्सव में गहराई हो सकती है. जो हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखे. भस्म-होली की परंपरा दुनिया में आज भी जीवित है, जो न केवल काशी की अमरता को साबित करती है. अपितु भस्म-होली आज की मायावी दुनिया में भी हमें अपनी ओर खुद-ब-खुद ही आकर्षित करती है. बनारस (Banaras Masan Holi) इसी भस्म होली को तमाम लोग दुनिया में ‘मसान-होली’ (Masane ki Holi)के रूप में भी जानते हैं.
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार तो मसाने या भस्म होली में खुद बाबा भोलेशंकर भी शामिल होते हैं. बाबा काशी विश्वनाथ के ससुराल पक्ष की विनती पर, रंगभरी एकादशी के दिन माँ पार्वती के गौने में पिशाच, भूच-चुड़ैल, डाकिनी-शाकिनी,अघोरी-औघड़, साधू-सन्यासी आदि शामिल नहीं हो पाते हैं. क्योंकि शिवजी के ससुराल वालों को इससे डर लगता था. कहते हैं जो अपने भक्त भोले शंकर की गौने में शामिल नहीं हो सके थे, काशी के मालिक यानी भोले शंकर ने उन्हीं सबके वास्ते मसान की या चिता भस्म की होली का आयोजन किया था. मतलब रंगभरी एकादशी के अगले दिन भोले अपने भूत-पिशाचों के दल-बल के संग मणिकर्णिका घाट पर पहले आकर गंगा में स्नान करते हैं. फिर भक्तों (भूत पिशाच औघड़ इत्यादि ) के संग भस्म होली खेलते हैं.
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